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त्रिविक्रम - प्राकृत - व्याकरण
त, थ, प, और फ के द, ध, ब और भ
सबधु करेपिणु कधिदु मइँ तसु पर सभलउँ जम्मु ।
जासु नचाउन चारभडी न य पम्हट्टउ धम्मु ॥ ३ ॥ (=हे. ३९६-३ )
( शपथं कृत्वा कथितं मया तस्य परं सफलं जन्म ।
यस्य न त्यागो न चारभटी न च प्रमुष्टो धर्मः || )
शपथ करके मैंने कहा- जिसका त्याग ( दानशूरता ), पराक्रम (आरभटी) और धर्म नष्ट नहीं हुए हैं, उसका जन्म संपूर्णतः सफल हुआ है ।
स्वरके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण स्वरके आगे न हो, तो यह वर्णान्तर नहीं होता) | उदा. - गिलि गिलि राहु मियंकु [१] | असंयुक्त, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वे वर्ण असंयुक्त नहीं होते, तो ऐसा वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा.- एक्कहिं अक्खिहिं सावणु (हे. ३५७.२ ) । अनादि होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अनादि न होनेपर, ऐसा वर्णान्तर नहीं होता) । उदा. - सबधु करेदिणु [३] । प्रायःका अधिकार होनेसे, क्वचित् (ऐसा वर्णान्दर) नहीं होता । उदा.
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जब के वइ पावीसु पिउ अकिआ कोड करीसुँ ।
पाणिउ नवइ सरावि जिवँ सव्वंगे पइसी ॥ ४ ॥ ( = हे. ३९६.४) (यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियमकृतानि कौतुकानि करिष्यामि । पानीयं नवे शरावे यथा सर्वांगे प्रवेक्ष्यामि ॥1)
यदि कथंचित् प्रियकरको प्राप्त कर लूँ, तो पहले कभीभी न किया हुआ कौतुक मैं कर लूँ । नये कसोरेमें जैसे पानी सर्वत्र प्रवेश करता है, वैसे मैं सर्वांग से ( प्रियकर में ) प्रवेश करूँगी ।
उअ कणिरु पफुल्लिअर कंचणकंतिपयासु । गोरीवयणविणिज्जिअउ णं सेवइ वणवासु ॥ ५ ॥ ( =हे. ३९६.५)
(पश्य कर्णिकारः प्रफुल्लितः काञ्चनकान्तिप्रकाशः । गौरीवदनविनिर्जितो ननु सेवते वनवासम् ॥)
देख, कांचनकी तरह कांतिसे चमकनेवाला कर्णिकार प्रफुल्लित हुआ है । सुंदरीके मुख से पराजित होकर मानो वनवास सेवन करता है ।
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