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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
मई जाणिउँ पिअविरहिअहं क वि घर होइ विआलि । णवर मिअंकु वि तिह तवइ जिह दिणयह खयगालि ||१४॥ (=हे. ३७७.१)
(मया ज्ञातं प्रियविरहितानां कापि धरा भवति विकाले । केवलं मृगाङ्कोऽपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले ॥)
मैं समझ रही थी कि प्रियसे विरही जनोंको संध्यासमयमें कुछ आधार (धरा-अवलंबन, दुःखनिवृत्ति) मिलता है। पर प्रलयकालमें जितना सूर्य उतना (इस समय) चंद्रभी ताप देता है।
इसीप्रकार जिव और तिध इनके उदाहरण जाने । दादेहो यादृक्तादृक्कीदृगीदृशाम् ॥ ९ ।। ____ अपभ्रंशमें यादृक्, इत्यादि शब्दोंके द-आदि अवयवको डित् एह ऐसा आदेश होता है। ड् इत् होनेसे, सर्वत्र टि का लोप होता है ।। ९ ॥ उदा.
मई भणिअउ बलिराउ तुहुँ केहउ मग्गणु एहु। जेहु तेहु नवि होइ वढ सइँ नारायणु एहु ॥ १५ ॥ (हे. ४०२.१) (मया भणितो बलिराज त्वं कीदृक् मार्गण ईदृक् । यादृक् तादृक् न भवति मूढ स्वयं नारायण एषः॥)
(शुक्राचार्य कहते हैं।-हे बलिराज, किस प्रकारका यह याचक है, वह मैंने तुझसे कहा था। रे मुर्ख, यह जैसा-तैसा कोई नहीं है, (केवल) स्वयं नारायण है। डइसोऽनाम् ।। १० ।।
अपभ्रंशमें यादृश, इत्यादि अकारान्त अर्थात् य दृश, तादृश, कीदृश ईदृश ऐसे रूपोंके द-आदि-अवयवको डित् अइस ऐसा आदेश होता है। उदा.जइसु । तइसु । कइसु । अइसु ॥ १०॥ यावत्तावत्युमहिमा वादेः ।। ११ ।।
___ अपभ्रशमें यावत् और तावत् इन अव्ययोंके वकारादि अवयवको उं, महिं, म ऐसे तीन आदेश होते हैं ॥ ११ ॥ उदा.. तिलहँ तिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलंति । नेहि पणटुइ ते ज्जि तिल तिल फिट्टवि खल होति ॥१६॥ (=हे. ४०६.२)
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