________________
हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४
१६३
माणन्तौल च ङलः ।। ४१ ॥
लुङ् यानी क्रियातिपत्ति (=संकेतार्थ); उसके जो तिप् और त (ऐसे दो प्रत्यय हैं),उनके स्थानपर माण और न्त ऐसे ये (दो), तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण जर् और जार ऐसे होते हैं। (जर और जानें र् इत् होनेसे, ज और जा का द्वित्व होता है)। (सूत्रमेंसे माणन्तौल में) ल इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा. होमाणो होन्तो होज्ज होजा। (यानी) अभविष्यत् ऐसा अर्थ ॥ ४१ ॥ शतृशानचोः ॥ ४२ ॥
(इस सूत्रमें २.२.४ १ से) माणन्तौ पदकी अनुवृत्ति है। शतृ और शानच् इन दो प्रत्ययों के स्थानपर माण और न्त ऐसे ये (दो) प्रत्येकको होते हैं। उदा.-शत-इसमाणो हसन्तो शानच-सहमाणो सहन्तो ।। ४२ ॥ स्त्रियामी च ।। ४३॥
स्त्रीलिंगमें रहनेवाले शतृ और शानच् इन प्रत्ययोंके स्थानपर ई, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण माण और न्त होते हैं। उदा.-हसई हसमाणा हसन्ती। वेवई वेवमाणा वेवन्ती ।। ४३ ॥ धेत तुंतव्यक्त्वासु ग्रहः ।। ४४ ।।
तुम्, तव्य और क्त्वा प्रत्यय आगे होनेपर, ग्रह धातुको धेत् ऐसा (आदेश) होता है। उदा.-तुम् -धेत्तुं। तव्य-घेत्तव्वं । क्वा-घेत्तुआण घेत्तण। कचित् ऐसा नहीं होता। उदा.-गहिउं। गेण्हिअ ।। ४४ ।। अन्त्यस्य वचिमुचिसदिश्रुभुजां डोत् ।। ४५ ।।
(इस सूत्र, २.४.४ ४ से) तुंतव्यवत्वासु पदकी अनुवृत्ति है। बच् (वचि), मुच (मुचि), रुद् (रुदि), श्रु और भुज् (भुजि) इन धातुओंके अन्त्य वर्णको, तुं, त य और क वा प्रत्यय आगे होनेपर, डित् ओ ऐसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org