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त्रिचिंक्रम-प्राहस-याकरण
मेशलुको तु संधुद्धे ॥ १२ ॥
'सोः' (२.२.१३) इस सूत्रसे प्राप्त हुआ डो, और 'इलगनर्षि सोः' (२.२.२९) इस सूत्रसे जो श्लक् कहा गया, वे दोनों, संबुद्धि पानी आमंत्रण इस अर्थमें होनेवाले सु (-प्र. ए. व.) प्रत्ययके विकल्पसे होते हैं। उदा.-हे देव, हे देवो । हे अज, हे अजो। श्लम (का उदाहरण)। हे हरि, हे हरी । हे गुरु, हे गुरू । हे बुद्धि, हे बुद्धी। हे वहु, हे वहू। जाइविसुद्धण पहू, जातिविशुद्धेन प्रभो। संबोधनके अर्यमें होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण आमंत्रणके अर्थ में जब भव्ययोंका उपयोग होता है (देखिए २.१.५९), तब अगला प्रकार होता है)-दे कासवा । दे गोरा । रे रे पिलिआ। रे रे णिग्धणिआ॥१२॥ ऋदन्ताः ॥ १३ ॥
(इस सूत्रमें २.२.४२ से) संबुद्धेः पदकी अनुवृत्ति है। (हस्व) ऋकारान्त संज्ञाके आगे संबोधन (प्रत्यय) का डित् अ विकल्पसे होता है। उदा.-हे पितः हे पिभ । हे. दातः हे दा॥ ४३ ॥ नाम्नि डरम् ।। १४ ॥
नामवाचक यानी संज्ञावाचक (इस्व) ऋकारान्त शन्दोंके बाये संबोधन (प्रत्य को डित् अरं ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.हे पितः हे पिरं । विकल्पपक्षमें-- हे पिअ । नाम (संज्ञा) वाचक, ऐसा क्यों कहा है। (कारण अन्यत्र ऐसा नहीं होता)। उदा. हे कत्तार ॥१४॥ टापो डे ॥१५॥
___टाप् प्रत्ययसे अन्त होनेवाले शब्दोंके आगे संबोधन (प्रत्यय) का डित् ए विकल्पसे होता है। उदा.-हे माले । हे अज्जे । विकल्पपक्षमेंहे माला। हे अज्जु । इत्यादि । टाप् प्रत्ययसे अन्त होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ?(कारण अन्यत्र ऐसा नहीं होता)। उदा.-हे पिउध्छा । हे माउछा।
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