________________
१५३
हिन्दी अनुवाद-म. २, पा. ४ स्वस्तेर्हम्होम्हि ममोमिना ॥ ८ ॥
अस् धातुके स्थान पर, म, मो और मि इनके सह यथाक्रम म्ह, म्हो और म्हि ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-गअ म्ह गअ म्हो गअ म्हि, गताः स्मः। एस म्हि एषोऽस्मि। (२.४.६ में कहे हुए) मुकारका यहाँ ग्रहण न होनेसे, उसका प्रयोग नहीं होता, ऐसा निश्चित होता है। विकल्पपक्षमें-अस्थि अम्हे। अस्थि अहं ।। ८॥ सिना ल्सि ।। ९।।
(इस सूत्रमें २.४.८ से) अस्तेः पदकी अनुवृत्ति है। सि के साथ यानी मध्यमपुरुषके एकवचनके आदेशके साथ, अस् धातुको सि ऐसा आदेश लित् (=नित्य) होता है । उदा.-णिठुरो जं सि, निष्ठुरो यदसि । सि के साथ, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण) से आदेश होनेपर-अस्थि तुम, ऐसा होता है ॥ ९॥
तिङाथि ॥ १०॥ - अस् धातुको तिङ् यानी तिम्, इत्यादिके साथ अत्थि ऐसा आदेश होता है। उदा.-अस्थि सो। अस्थि ते। अत्थि तुमं । अस्थि तुम्हे । अत्यि अहं । अस्थि अम्हे ॥ १० ॥ णिजदेदावावे ॥ ११ ॥
धातुको प्रेरणार्थमें कहा हुआ जो णिच् प्रत्यय, उसको अ,ए,आव, आवे ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं। (अत्, एत् मेंसे) तकार तावन्मात्रव दिखानेके लिए है। उदा.-अत्-दरिसइ। एत्- कारेइ । आव- कारावई। आवे कारावेइ ।। हासावइ हासइ हासावेइ हासेइ। उवसमावइ उसमेइ । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् ए (प्रत्यय लगता) नहीं। उदा.-जाणइ जाणावइ जाणावेइ। कचित् आवे (प्रत्यय लगता) नहीं। उदा.-धावइ धावेइ धावावइ ॥ ११ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org