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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
लाक्षारक्त । पल्लववत् पल्लविता हुआ। (६२) अच्छिवडणं निमीलन । (अक्षिपतन) आँखोंके पक्ष्मोंका गिरना। (६३) णीसको वृषः। नि:शंक । (६४) और, एलविलो धनवान् । चकारसे वृष (यह भी अर्थ)। (६५) सुहरओ लडकीका घर और चिडिया। (सुखरत) जिसको अच्छा रत है वह । (६६) हट्ठमहट्ठो स्वस्थ । जो हृष्ट और महार्थ है वह । (६७) णिम्मीसुओ युवा जिसे मँछ नहीं वह । आद्य अ का ई हो गया है। (६८) जहणारोहो ऊरु । जघनेन आरुह्यते इति । (६९) पल्लजीहो । (७०) अउज्झहरो र हरयभेदी। पर्यस्त जिह्वः । गुह्यहरः । यहाँ प्रारंभमें अ का आगम हुआ है । (७१) णिहुअं निधुवनं सुरत और निभृत । (७२) अब्बुद्धसिरी, मनोरथसे अधिक फलप्राप्ति । अबुद्धश्री:; (यह शब्द) प्रमुक्तादिपाठमें (१.४.९१) होनेसे, यहाँ द्वित्व हुआ है। (७३) बहुजाणो (यानी) चोर और धूर्त । बहुज्ञानः । (७४) परेओ परेतः (यानी)पिशाच । (७५) उज्जल्लो (यानी) बहुत बल होनेवाला । उज्ज्वलः । यह शब्द देवादिपाठमें (१.४.९२) होनेसे, द्वित्व हुआ है। (७६) जोई विद्युत् या ज्योति (७७) भिंग (यानी) कृष्ण (काला)। भ्रमरकी तरह काला होनेसे । भिंग शब्द संस्कृतमें है, ऐसा कोई कहते हैं। (७८) णिअंधणं परिधान । निबध्यते इति निबन्धनम् (जिससे बांधा जाता है वह)। (७९) जहणूसुअं चल्लणकम् । जघनांशुक यानी कटिवस्त्र । यहाँ अनुस्वारके साथ आ का ऊ हो गया है। (८०) पाउरणं कवच । प्रावरण करनेसे । यहाँ आध अ का उ हुआ है। (८१) ओअल्लो (यानी) अपसार और कंप। अपचारसे ओअल्लो । यह शब्द तैलादिपाठमें (१.४.९३) होनेसे, द्वित्व हुआ है। (८२) चवेडी, करसंपुटोंका आघात । (८३) रइलक्खं रतिलक्ष्यम् जघन । (८४)वावडो कुटुम्बी, व्यापृत । (८५) पुरिल्लदेवा (यानी) दैत्य, पुराभव । (८६) गोसण्णो मूर्ख । पशु जैसा होनेसे गोसंज्ञ । (८७) परभत्तो (यानी) भीर और निष्पीड । पर यानी शत्रु और उसका भक्त । (८८) चच्चिको (यानी) स्थासक। चर्चिका; यहाँ क का द्वित्व हुआ और पुल्लिंग हो गया।
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