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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
विलासी । यहाँ वल्लभ शब्दके आगे ल (आया) और आद्य भ का ए (हुआ है)। (१०) सद्दालं नूपुरम् । 'शब्द' इस शब्दके आगे अस्ति अर्थमें आल प्रत्यय आकर (सद्दाल शब्द बना है)। (११) अल्लिल्लो (१२) फुलंघओ (१३) रसाओ नमरः (यानी मॅवरा)। इन शब्दोंमें क्रमसे-अलि शब्दके आगे स्वाथें डित् इल्ल (डिल्ल) और ल् का द्वित्व होकर (अलिल्लो)। पुष्पंधयः, यहाँ प का ल होकर (फुल्लंघओ)। रसं अत्ति इति (रसादः) रसाओ। (१४) लमणी लअणा (१५) कणई, लता अर्थमें । लता शब्दके आगे डणी और डणा (डित् अणी
और अणा) प्रत्यय आकर (लअणी, लअणा रूप हुए)। (कणई)-कनति धातुको स्त्रीलिंगबोधक डई (डित् अई) प्रत्यय लगकर (कणई); शोभावहत्वके कारणसे । (१६) वहुज्जा (यानी) कनीयसी श्वश्रः (छोटी सास)। वधू शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें ज्जा प्रत्यय आगया । (१७) भाउमा भ्रातृवधूः । भाईकी भार्या इस अर्थमें (भ्रातृ शब्दके आगे) ज्जा प्रत्यय आगया। (१८) मेहुणिआ मातुलात्मजा और स्याली (ममेरी बहिन, साली)। मैथुनिका । मिथुन शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें इकण और डात् (=डितू आ) प्रत्यय आगये। (१९) रिमिणो रोदनशीलः। रुद् धातुको शील अर्थ में डिमिण (=डित् इमिण) प्रत्यय जुट गया। (२०) पुण्णाली (२१) छिन्छई (२२) अडअणा असती। पुंश्चली शब्दमें श्च का णा होकर (पुण्णाली शब्द बना) । धिक् धिक (का वर्णान्तर) छिच्छि।' धिक धिक, ऐसी निंदा जिसकी होती है वह (छिच्छई)। अस्ति अर्थमें डई (=डित् अई) प्रत्यय (छिच्छि को लगा)। अट् धातुको शील अर्थमें अणा प्रत्यय लगकर, अडअणा (यानी) अटनशीला (घूमना जिसका स्वभाव है वह)। (२३) चप्पलओ मिथ्याबहुभाषी। चपल शब्द के आगे क आया और प का द्विरुक्त प (=प्प) हो गया। (२४) पिब्बं जलम् । पिब धातुमें ब का द्वित्व हो गया। (२५) मघोणो (यानी) मघवा (इंद्र)। यहाँ स्वाथें ण आया है और 'अवा' इसका ओकार हुआ है । (२६) सइलामिओ मयूर । सदालासिकः, कारण नृत्य करनेका उसका स्वभाव है। यहाँ 'इत्तु सदादौ' (१.२.३४) सूत्रानुसार (सदा शब्दका) सइ (रूप) हुआ है। (२७) वाउल्लो प्रलपिता (प्रलाप करनेवाला)। यहाँ वाच् शब्द को डुल्ल (डित् उल्ल) प्रत्यय लगा है। (२८) पलहिअओ मूर्ख । उपलहृदयः । (यहाँ) (आध) उकारका
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