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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. १ इरः शीलाद्यर्थस्य ॥२८॥
शील, धर्म, साधु इन अर्थों में कहे हुए प्रत्ययके स्थानमें इर ऐसा आदेश होता है। उदा.-हसनशीलः हसिरो। रोदनशीट: रोइरो। लज्जाशीलः लज्जिरो । जल्पशीलः जप्पिरो । वेदनशील: वेइरो | उच्छवस् नशीलः ऊसस्रोि। इरं यह तृन्को आदेश होता है, ऐसा कोई कहते है। उनके बारेमें नमिर, कमिर, इत्यादि (रूप) सिद्ध नहीं होते । कारण अगले सूत्र, इत्यादिमें कहे हुए तृन् से बाध होता है ॥ २८ ॥ तुमत्तुआणतूणाः क्त्वः ॥ २९ ॥
क्वा प्रत्ययको तुं, अ (अत्), तुआण और तूण ऐसे चार आदेश होते हैं । उदा.-तु-दटर्छ । मोत्तुं । भोत्तुं । अ (अत्) ममिअ । अि । तुआणघेत्तुआण । सोउआण। 'क्त्वासुपोस्तु सुणात्' (१.१.४ ३) सूत्रानुसार, अनुस्वार आनेपर घेत्तु आणं । सोउआणं । तूण-घेत्तण : सोऊण । काऊण । अनुस्वार आनेपर-घेत्तणं । सोऊणं । काऊणं। पर वंदित्ता यह रूप मात्र (वन्दित्वा इस) सिद्ध रूप से व् का लोप होकर सिद्ध हुआ है ॥ २९ ॥ वरइत्तगास्तृनाद्यैः ।। ३० ।।
वरइत्त, इत्यादि शब्द जो तृनादि प्रत्ययोसे सहित और स्वरादि आदेशोंसे विशिष्ट ऐसे होते हैं वे बहुलत्वसे निपातके रूपमें आते हैं । उदा.(१) वर इत्तो वरयितृक : (यानी) नवीन वर । यह। ऋ का अ और त् का द्वित्व हुआ है । (२) कणाल्लो (३) वाअडो (यानी) शुक। कण इल्लो-कणई शब्द लतावाचक देशी शब्द है; (उसको) भवार्थे या अस्ति इस अर्थमें रित् इल्ल प्रत्यय लगा। वाअडो-वाचाट शब्दमें द्वितीय आक। अ हुआ है। (४) मइलपुत्ती पुष्पवती। मलिन शब्दको मइल ऐसा आदेश होकर उसके आगे पुत्ती शब्द आगया । (५) दुग्घोट्टो दोग्घट्टो (६) दृणो (यानी) द्विप: (हाथी)। यहाँ पिबति धातुको घोट्ट (ऐसा आदेश है)। द्वाम्या पिति इति । (दूणो-) द्विपान शब्दमें पकारके साथ इ का ऊ होकर दुण रूप होगया । (७) विरिचरो (यानी धारा छोडनेका स्वभाव होनेवाला । (८) सूरल्ली (यानी) मध्याह्न । यहाँ सूर शब्दके आगे अस्ति अर्थमें ल्लि प्रत्यय आया है। (९) वेलहलो कामल और
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