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प्रथम अध्याय
विशेष :—(क) एक पद में सन्धि-कार्य नहीं होता । जैसे
पाओ (पादः), पई, वच्छाओ, मुद्धाए इत्यादि । (ख) कहीं कहीं एक पद में भी शब्दों के स्वभाववश सन्धि होती देखो जाती है। जैसे—काहिइ,
काही; बिइओ, बीओ। (१०) 'इ' और 'उ' का विजातीय स्वर के साथ कभी सन्धि-कार्य नहीं होता । जैसे—विअ (इव), महुइँ ( मधूनि ), न वेरिवग्गे वि अवयासो* (न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः), दणु इन्दरुहिलित्तो ( दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः).
(११) सजातीय स्वर के साथ सन्धि हो जाती है। जैसेपुहवी+ईसो=पुहवीसो (पृथिवीशः); कुलूद+अहिपो=कुलूदाहिपो ( कुलूताधिपः)।
(१२) 'ए' और 'ओ' के आगे यदि कोई स्वर वर्ण हो तो उनमें सन्धि नहीं होती है। जैसे–देवीए+एत्थ, एओ+एत्थ ( देव्या अत्र, एकोऽत्र ); वहुआइ नहुल्लिहणे आबन्धन्तीऍ कञ्चुअं अङ्गे (बध्वा नखोल्लेखने प्राबध्नत्या कञ्चुकमङ्ग), तं चेव मलिअ विसदण्ड विरसमालक्खिमो एपिंह (तदेव मृदितविसदण्डविरसमालक्षयामह इदानीम् )
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भीय परित्ताणमइं पइण्ण मसिणो तुहाधिरूढस्स । (भीतपरित्राणमयी प्रतिज्ञामसेस्तवाधिरूढस्य ।) मन्ने संकाविहुरे न वेरिवग्गे वि अवयासो। ( मन्ये शङ्काविधुरे न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः॥) दणु इन्द रुहिरलित्तो सहइ उइन्दो नहप्पहावलि-अरुणो । ( दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः शोभते उपेन्द्रो नखप्रभावल्ल्यरुणः)
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