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प्रथम अध्याय - (२) भिन्न वर्गवाले व्यञ्जन वर्णों का परस्पर संयोग नहीं होता अर्थात् त्+क, पू+क, क्+त, क्+य, क्+र, क्+ल, ल+क और क्+व इनका परस्पर संयोग न होकर केवल 'क' रूप ही होता है। उसी तरह ड्+ग, ढ+ग, ग+न, ग्+य, ग+र, र+ग और लू+ग का परस्पर संयोग न होकर केवल ग्ग रूप ही रहता है। जैसे-उत्कंठा ( उत्कण्ठा), अकँवलं (अकमलम् ), णकंचरो (नक्तञ्चरः), जगणवक्कण (याज्ञवल्क्येन), सक्को (शक्रः), विक्कवो (विक्लवः), उक्का (उल्का), पिकं (पक्कम् ), खग्गो (खड्गः), अग्गिणी (अग्नीन् ), जोग्गो (योग्यः), कअग्गहो (कचग्रहः), मग्गो (मार्गः) बग्गा (वल्गा)। विशेष—इसी तरह दूसरे भिन्नवर्गीय वर्णों के बारे में
भी जानना चाहिए। जैसे–सत्तावीसा (सप्त
विंशतिः), कण्णउरं (कर्णपुरम्) (३) वर्ग के पाँचवें अक्षरों का अपने वर्ग के अक्षरों के साथ भी कहीं-कहीं संयोग देखा जाता है, किन्तु सर्वत्र नहीं। यथा-अङ्को (अङ्कः), इङ्गालो (अङ्गारः), तालवेण्टं (तालवृन्तम् ), वञ्चरणीयम् (वञ्चनीयम् ), फन्दनं (स्पन्दनम् ), उम्बरं (उदुम्बरम्)
(४) प्राकृत में ऐसा व्यञ्जन नहीं मिलता जो (संस्कृत के यावत् , तावत् , ईषत् के तकार के समान ) स्वर-रहित हो।
(५) प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिङ्ग, कारक, समाससंज्ञा आदि संस्कृत के समान ही होते हैं।
(६) प्राकृत में द्विवचन नहीं होता। इसी प्रकार संप्रदान कारक में आनेवाली चतुर्थी विभक्ति भी प्राकृत में नहीं होती है। हिन्दी और अंग्रेजी की तरह द्विवचन का काम बहुवचन