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प्राकृत व्याकरण से और चतुर्थी का काम षष्ठी से पूरा कर लिया जाता है । द्विवचन के बदले बहुवचन का उदाहरण जैसे-वच्छा चलन्ति ( वत्सौ चलतः); चतुर्थी के बदले षष्ठी जैसे—विप्पस्स देहि (विप्राय देहि)
(७) समास में कभी-कभी दीर्घ स्वर हस्व स्वर के रूप में और ह्रस्व स्वर दीर्घ स्वर के रूप में बदलता हुआ देखा जाता है। दीर्घ का ह्रस्व जैसे-जहट्ठिअं ( यथा स्थितम् ), अंतावेइ (अन्तर्वेदी ); ह्रस्व का दीर्घ जैसे-सत्तावीसा ( सप्तविंशतिः)।
() कभी-कभी दीर्घ और ह्रस्व के क्रमशः ह्रस्व और दीर्घ रूप समास में विकल्प से होते देखे जाते हैं। जैसेणइसोत्तं, णईसोत्तं ( नदीस्रोतः), बहुमुहं बहूमुहं ( वधूमुखम् ), पिप्रापिअं, पीआपीअं (प्रियाप्रियम् ) विशेष:-कभी कभी स्वरों के उक्त परिवर्तन नहीं भी देखे
जाते हैं । जैसे-जुवइ-अणो (युवतिजनः) (६) दो पदों में सान्निध्य रहने पर संस्कृत के लिए विहित कुल सन्धि-कार्य प्राकृत में विकल्प से किये जाते हैं। जैसेवास+इसी, वासेसी (व्यासर्षिः); दहि+ईसरो, दहीसरो ( दधीश्वरः)
* देखिए वररुचिसूत्र द्विवचनस्य बहुवचनम् ६.३३. और चतुर्थ्याः षष्ठी ६.६४. अर्द्धमागधी में चतुर्थी देखी जाती है। जैसेअधम्माय कुज्झइ (अधर्माय क्रुध्यति ), संसाराए सुखं ( संसाराय सुखम् ), अाए दण्डो (अर्थाय दण्डः) इत्यादि ।