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एकादश अध्याय से होता है । जैसे :-लक्खेहि' (लक्षैः); पक्ष में गुणहिँ (गुणैः)।
(८) अपभ्रंश में अकारान्त शब्द से पर में आने वाले उसि विभक्ति के स्थान में हे और हु आदेश होते हैं । जैसे :-- वच्छहे गृण्हइ, वच्छहु गृण्हइ ( वृक्षात् गृहणाति)।
(E) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से पर में आने वाले भ्यस् ( पञ्चमी बहुवचन ) के स्थान में हुं आदेश होता है । जैसे :गिरि-सिङ्गहुँ, ( गिरिशृङ्गेभ्यः)।
— (१०) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से पर में आने वाले उस ( षष्ठी एकवचन ) के स्थान में सु, हो और स्सु ये तीन आदेश होते हैं । जैसे :-तसु (तस्य), दुल्लहहो ( दुर्लभस्य) सुअणस्सु (सुजनस्य )।
१. गुणहि न संपइ (कत्ति पर फल लिहिया भुञ्जन्ति ।
के सरि न लहइ बोड्डिअ विगय लक्खोहिं घेप्पन्ति ॥ ( गुणैः न संपत् कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति ।
केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजाः लक्षैः गृह्यन्ते ॥) २. वच्छ, गृण्हइ फलइँ जणु कडु पल्लव बज्जेइ ।
तो वि महदुमु सुअणु जिवे ते उच्छङ्गि धरेइ ।। ( वृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः कटुपल्लवान् वर्जयति ।
तथापि महाद्रुमः सुजन इव तान् उत्सङ्गे धरति ॥ ) ३. दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ । जिह गिरिसिङ्गहुं पडिअ सिल अन्नु विचूरु करेइ ॥ (दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं मारयति । यथा गिरिशृङ्गेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णीकरोति ।) ४. जो गुण गोबइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु ।
तसु हर कलिजुगि दुल्लहो बलि किजउं सुअणस्सु ॥