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प्रथम अध्याय विशेष:-(क) शौरसेनी आदि प्राकृत के अन्य भेदों में
उक्त नियम लागू नहीं होता। (ख) प्राकृत प्रकाश के अनुसार किसी भी संयुक्ताक्षर के पूर्व में वर्तमान स्वर से पूर्ववर्ती स्वर का सब जगह लोप होना माना जाता है।
जैसे—णत्थि (नास्ति) (१६) शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का सर्वत्र लुक् होता है। जैसेप्राकृत
संस्कृत जाव
यावत् ताव
तावत् जसो
यशः गह
नभः सिरं विशेष:-समास में उक्त नियम विकल्प से होता है।
सभिक्खू (लुक ) सज्जणो (अलुक्) (२७) 'श्रत्' और 'उत्' इन दोनों के अन्त्य व्यञ्जन का लुक नहीं होता । जैसे—सद्धा (श्रद्धा ); उएणयं ( उन्नयम् )
(१८) 'निर' और 'दुर' के अन्तिम व्यञ्जन र का लुक विकल्प से होता है। जैसे-निस्सहं (लुगभाव), नीसहं (लुक्); दुस्सहो (लुगभाव ), दूसहो (लुक्)। सं. निस्सहम् , दुस्सहः ।
* शौरसेनी में दाव होता है।
+नसान्तप्रावृट्सरदः पुंसि। वर. सू. ४.१८. नान्त, सान्त प्रावृष और सरद् शब्दों का प्रयोग पुंल्लिङ्ग में होता है।
न सिरोनभसी। वर० सू० ४.१६. शिरस् और नभस् शन्दों * के पुंलिङ्ग में प्रयोग का निषेध है ।
शिरः