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प्रथम अध्याय
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( २० ) विद्युत् शब्द को छोड़कर स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान सभी व्यञ्जनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का आत्व होता है । जैसेसरिया (सरित्); संपत्र ( संपद् ) ; वाआ* (वाकू); अच्छरा ( अप्सरः )
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उन्हीं के अन्य सूत्र ( ३. ५० ) के अनुसार आदि में नहीं रहनेवाले जो संयुक्त के शेष अथवा देशभूत अक्षर हों उनका द्वित्व माना गया है। इस प्रकार उत्कण्ठा में त् का लोप और क् का द्वित्व करके 'उक्कण्ठा' बनता है । उत्पातः का 'उप्पात्रो' बनता है । यह प्रकार उत्तम है। प्राकृतप्रकाश में दूसरे भी लोपविधायक सूत्र देखे जाते हैं । जैसे -- ( १ ) उदुम्बरे दोर्लोपः । वर० २.४ उदुम्बर शब्द में दु का लोप होता है । उवरं ( उदुम्बरम् ) ( २ ) कालायसे यस्य वा । वर० ३. ४ कालायस में य का लोप विकल्प से होता है । कालासं- कालाअसं (कालायसं ) ( ३ ) भाजने जस्य । वर० ४. ४ भाजन शब्द में
का वैकल्पिक लोप होता है । भाणं, भाश्रणं ( भाजनम् ) (४) यावदादिषु वस्य । वर० ५.४ यावत् प्रभृति शब्दों में 'व' का वैकल्पिक लोप होता है। जा, जाव; ता, ताव; पाराश्रो, पारावत्रो; अनुत्तेन्तो, अनुवत्तन्तो; जीÅ, जीवि; एवं एव्वं एत्र एब्व; कुलश्रं, कुवलयं; ( यावत्, तावत्, पारावतः, अनुवर्तमानः जीवितम् एवं, एव, कुवलयम् )
* एत्तिश्रं जेत्र श्रत्थि मे वाच्छलं ( एतावदेवास्ति मे वाक्छलम् ) मुद्रा० अ० १. में चन्दनदासवचन । णत्थि में बाआविहवो ( नास्ति मे वाग्विभवः ) विक्र० श्र० २ में उर्वशीवचन ।
† सहि, अच्छरावावारपज्जाएण तत्र भादो सुजस्स उवद्वाणे वट्टंती ( सखि, अप्सरो व्यापारपर्यायेण तत्र भवतः सूर्यस्पोपस्थाने वर्तमाना ) विक्र० प्र० ४ में चित्रलेखावचन ।