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प्राकृत व्याकरण अकार का उत्व होता है । जैसे-अहिएणू (अभिज्ञः); सवण्णू* (सर्वज्ञः); आगमण्णू (आगमज्ञः) विशेष—णत्वाभाव में अहिजो (अभिज्ञः) और सव्वजो
(सर्वज्ञः) रूप होते हैं। अभिज्ञादि से भिन्न स्थल
में नियम नहीं लगता। पण्णो (प्राज्ञः)। (५७) शय्या आदि शब्दों में आदि अकार का एकार आदेश होता है। जैसे-सेज्जा (शय्या); सुंदे (सुन्दरम् ); उक्करो (उत्करः); तेरहो (त्रयोदश); अच्छेरं (आश्चर्यम् ); पेरन्तं ( पर्यन्तम् ); वेल्ली (वल्लिः) विशेष-कोई-कोई प्राकृत वैयाकरण शय्यादि गण में
___ कन्दुक का भी पाठ मानते हैं। उनके मत से
गेंडुअं (कन्दुकम्) रूप होता है। (५८) अर्पि धातु के आदि अ का ओ आदेश विकल्प से होता है। ओ जैसे-ओप्पेइ; ओ का अभाव जैसे-अप्पेइ ___* पैशाची में सव्वण्णू न होकर सव्वञ्जो और शौरसेनी में सव्वएणो होता है।
शय्यादि गण में निम्नलिखित शब्द ही माने गये हैं__शय्या त्रयोदशाश्चर्य पर्यन्तोत्करवल्लयः;
सौन्दर्य चेति शय्यादिगणः शेषस्तु पूर्ववत् ॥ * प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द ने एच्छय्यादौ १. ५७ और वल्ल्युत्करपर्यन्ताश्चर्य वा १.५८ इन दो सूत्रों को बनाकर प्रथम सूत्र से नित्य एत्व करते हुए सेजा, सुन्देरं, गेन्दुअं, एत्थ (अत्र) इन उदाहरणों की सिद्धि मानी है। दूसरे से वैकल्पिक एत्व करते हुए वेल्ली, वल्ली; उक्केरो, उक्करो; पेरन्तो, पजन्तो; अच्छेरं, अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिजं, अच्छरीअं उदाहरण दिये हैं।