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तृतीय अध्याय ईसरो (ईश्वरः); लासं ( लास्यम् ); संकेतो ( संक्रान्तः ); संझा (संध्या ) __(8) रेफा और हकार का द्वित्व नहीं होता है। जैसेःसुंदेरं ( सौन्दर्यम); वम्हचेरं (ब्रह्मचर्यम् ); धीरं (धैर्यम् ); विहलो ( विह्वलः ); कहावणो ( कार्षापणः)
(१०) वर्गों के द्वित्व करानेवाले पूर्वोक्त नियम समस्त ( समासवाले ) पदों में विकल्प से प्रवृत्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि समास में शेष और आदेश व्यञ्जन का द्वित्व विकल्प से होता है। जैसे:-नइ-ग्गामो, नइ-गामो ( नदी ग्रामः); कुसुमप्पयरो, कुसुम-पयरो (कुसुम प्रकरः ); देव-त्थुई; देव-थुई ( देवस्तुतिः) इत्यादि। विशेष-कभी-कभी पूर्वोक्त द्वित्वविधायक नियमों को
विषयता नहीं होने पर भी समास में वैकल्पिक द्वित्व होता देखा जाता है । जैसे:-पम्मुक्कं, पमुक्कं (प्रमुक्तम् ); तेल्लोकं, तेलोकं (त्रैलोक्यम् )
इत्यादि। (११) तैलादि गण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों नीसासो, फासो। अलाक्षणिक दीर्घः-पासं, सीसं । लाक्षणिक अनुस्वारः-तंसं अलाक्षणिक अनुस्वारः-संझा, विझो। यह नियम श्रादेश में भी लगता है।
रेफ शेष नहीं मिलता है। आदेश ही मिलता है। देखो नियम ३. ३.
* प्राकृत-प्रकाश में तैलादि गण के बदले नीडादि गण से काम लिया गया है। कल्पलतिका में नीडादि गण यों है:
नीड व्याहृतमण्डूकस्रोतांसि प्रेमयौवने । . अजुः स्थूल तथा तैलं त्रैलोक्यं च गणो यथा ॥