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तृतीय अध्याय
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( ३४ ) जब श्वस और स्व शब्द किसी समास के अङ्ग न होकर पृथक् ही एक पद हों तब इनका विप्रकर्ष हो जाता एवं पूर्व के व्यञ्जन में उ स्वर का योग भी हो जाता है । जैसे:
प्राकृत सुवे कअं. सुवे जना
संस्कृत श्वः कृतम् स्वे जनाः
विशेष-हेमचन्द्र ने २.११४. में एकस्वरवाले पद में श्वस् और स्व शब्दों का उक्त कार्य माना है। उसका भी तात्पर्य पृथक् ही एक पद होने में है । समास का अङ्ग हो जाने पर सयणो ( स्वजनः ) हो जाता है।
-- (३५) शील ( स्वभाव, आदत ), धर्म ( गुण)
अथवा साधु ( प्रवीण ) अर्थ में जो प्रत्यय आते हैं उनके स्थान में 'इर' आदेश होता है। जैसे :-हसिरो, रोचिरो, लजिरो, भमिरो, जम्पिरो, वेविरो, उससिरो ( हसनशीलः इत्यादि)
विशेष-कोई-कोई तृन् के स्थान में ही 'इर' का आदेश मानते हैं। उनके मत से संस्कृत के नमी और गमी के लिए नमिर और गमिर रूप नहीं सिद्ध होते ।
( ३६ ) क्त्वा प्रत्यय के स्थान में तुम् , अत् , तूण और तुआण ये ४ आदेश होते हैं । जैसे: