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प्रथम अध्याय विलियं (व्यलीकम् ); वित्रणं (व्यजनम् ); मुइंगो (मृदङ्गः); किविणो ( कृपणः); उत्तिमो ( उत्तमः); मिरिअं (मरियम् ); दिएणं* ( दत्तम् )। विशेष-जहाँ दत्त के त्त के स्थान में णत्व नहीं हुआ हो,
वहाँ उक्त नियम में वहुल (प्रायः) का अधिकार
होने से इत्व नहीं होता है। जैसे-दत्तं; देवदत्तो। (५५) मयट् प्रत्यय में आदि अ के स्थान में 'अई' आदेश विकल्प से होता है। अइ होने पर जैसे-विसमइओ; अइ के अभाव में जैसे-विसमओ (विषमयः)
(५६) अभिज्ञ आदि शब्दों में णत्व करने पर ज्ञ के ही.
* प्राकृत प्रकाश में-'इदीषत्पक्वस्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाङ्गारेषु' यह सूत्र है। इस सूत्र में 'वेति निवृत्तम्' ऐसा कहा गया है । इसि ( ईषत् ); पिक्कं ( पक्कं ); सिविणो ( स्वप्नः); वेडिसो (वेतसः); विअणो (व्यजनम् ); मिइङ्गो (मृदङ्गः); इङ्गालो (अङ्गारः)। किन्तु प्राकृतमञ्जरी के अनुसार यह इत्व विकल्प से होता है। ईषत् पक्कं तथा स्वप्नो वेतसो व्यजनं पुनः। मृदङ्गश्च तथाङ्गार एषु शब्देषु सप्तसु । अत इद्वा भवेदीषदीसि वा पुनरीस वा। पक्कं पिक्कञ्च पक्कञ्च तथान्येष्वपि दृश्यताम् । इत्वमीषत्पदे कैश्चिदीकारस्यापि चेष्यते । 'इसि चुम्बिअमित्यादि रूपं तेन हि सिद्धयति । शौर-सेनी में अङ्गार और वेतस के आदि अकार का इकार नहीं होता। आर्ष में स्वप्न शब्द के श्रादि अकार का उकार भी होता है। जैसे-सुमिणो। इसके लिए देखिए-हेम० १. ४६ ।
+ जिनके ज्ञ का णत्व कर देने पर उत्व देखा जाता है, वे ही अभिज्ञादि हैं। देखिए हेम० १. ५६.