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द्वितीय अध्याय (घ) प्रायः कथन के बल से पखलो (प्रखलः), पलं बघणो (प्रलम्बनः), अधीरो (अधीरः),
अधण्णो (अधन्यः); जिणधम्मो (जिनधर्मः) ' इत्यादि में ह आदेश नहीं होता। (४) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि ट ठ और ड के स्थान में क्रमशः ड ढ और ल आदेश होते हैं। ट का ड जैसे-णडोक, भडो, विडवो, घडो, घडइ (नटः, भटः, विटपः, घटः, घटते); ठ का ढ जैसे:-मढो, सढो कमढो, कुढारो (मठः, शठः, कमठः, कुठारः); ड का ल जैसेः-वलवामुहं, गरुलो, कीलइ, तलावो, बलही (बढवामुखम् , गरुडः क्रीडति, तडागः, वलही) विशेष—(क) स्वर से पर में ऐसा कहने से घंटा (घण्टा)
वैकुंठो (वैकुण्ठः); मोंड (मुण्डम् ) एवं कोंड (कुण्डम् ) में ट, ठ और ड के स्थान में क्रमशः ड, ढ और ल नहीं हुए। (ख) संयुक्त रहने के कारण खट्टा, चिट्ठइ (तिष्ठति ) खड्गो के ट, ठ और ड के स्थान में ड, ढ और ल नहीं हुए। (ग) अनादि नहीं होने से टंकः, ठाई (स्थायी)
और डिंभो में ट, ठ ड के ड, ढ, ल नहीं हुए। . (घ) कहीं पर ट का ड नहीं होता और स्यन्त पट धातु में ट का ल आदेश विकल्प से होता है। अटइ ( अटति) में डादेश का प्रभाव और फालेइ, फाडेइ (पाटयति ) में ट के स्थान में ल और ड पर्याय से हुए।
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