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प्राकृत व्याकरण और अन्त में ) उक्त व्यञ्जनों का लुक होता है। और अनादि में स्थित शेष वर्गों का द्वित्व होता है । जैसेप्राकृत
संस्कृत उक्का [संयुक्तादि ललुक; कद्वित्व] उल्का वकलं [संयुक्तादि ललुक्; कद्वित्व] वल्कलम् सहं [संयुक्तान्त्य ललुक्; द्वित्वाभाव ] श्लक्षणम् विकवो [संयुक्तन्त्य ललुक; कद्वित्व ] विक्लवः सहो [संयुक्तादि वलुक् दद्वित्व] शब्दः
अहो [संयुक्तादि वलुक्, दद्वित्व] अब्दः . पिक [संयुक्तान्त्य वलुक्; कद्वित्व] पक्वम् धत्थं [संयुक्तान्त्य वलुक्; द्वित्वाभाव*] ध्वस्तम् अक्को [संयुक्तादि रलुक; कद्वित्व] अर्कः वग्गो [संयुक्तादि रलुक्; गद्वित्व] वर्ग: चकं [संयुक्तान्त्य रलुक् : कद्वित्व] चक्रः गहो [संयुक्तान्त्य रलुक; द्वित्वाभावक] ग्रहः रत्ती [संयुक्तान्त्य रलुक; तात्व] रात्रिः विशेष—(क) चन्द्र शब्द का चन्द्रो यही रूप होता है । किन्तु
हृषीकेश भट्टाचार्य अपने व्याकरण के पृष्ठ ५६ की पादटिप्पणी में लिखते हैं कि We find the form ict in many Manus cripts. (ख) द्व इत्यादि में जहाँ दोनों व्यञ्जनों का लुक प्राप्त हो, वहाँ प्राचीन प्राकृत आचार्यों के रूप दर्शन से कहीं संयुक्त के आदि वर्ण कहीं अन्त्य . वर्ण और कहीं बारी-बारी से दोनों वर्गों के लुक