Book Title: Prabandh Chatushtay
Author(s): Ramniklal M Shah
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 11
________________ सिद्धसेन-दिवाकर-कथानक ॥३४॥ दव्वेण तेण भिच्चाणं संगहं कुणइ जाव नरनाहो । पडिवक्ख-निवो पत्तो झड त्ति ता तेण तन्नयरं ॥३१॥ परिवेढियं समंता आउलिभूयम्मि सूरिणा तत्तो । खित्ता जलस्स मज्झे सिद्धत्था ते भडा जाया ॥३२॥ गहिय-दढाउह-सत्था गंतुं ते सत्तु-सेन्न[5B]-मज्झम्मि । पहरंति तहा जह तं न होइ पच्छा मया सव्वे ॥३३॥ एवं निहयम्मि बले पडिवक्ख-निवस्स संतियं सव्वं । गहियमियरेण सूरीण दढयरं कुणइ तो भत्तिं निसुयमिणं लोयाओ सव्वं सिरि-वुड्डवाइसूरीहिं । तो तस्स बोहणत्थं संपत्तो तत्थ एगागी ॥३५ ॥ दिट्ठो सो बहु-कङ्-वाइ-लोय-सेविज्जमाण-कमजुयलो ।। निव-पूय-गविएणं णावगओ तेण सो सूरी ॥३६॥ जोडिय-करेण तेणं भणियं मम देसु एग वक्खाणं । नत्थिऽत्य का वि वेला मोत्तूणं एग वेल त्ति ॥३७॥ रायउले गच्छामी जीए वेला [पत्र 6 अप्राप्य] ।। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ॥३८॥ • • • • • • • • • . . । [7A] . . . . . . . . तिस्सा ओयरिय तो झत्ति ॥३९॥ चलणेसु निवडिऊणं जंपइ मह खमह अविणयं भंते ।। तो अणुसठ्ठो सूरीहिं भद्द एयं किमाढत्तं कत्थ वयं कत्थेयं चरियं तुम्हारिसाणं विउसाण । विनाय-समयसाराण दूरओ जं विसंवयइ ॥४१॥ १. आउलभू ० २. निहिय ० ३. वाय • ४. त्थि ० ॥४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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