Book Title: Prabandh Chatushtay Author(s): Ramniklal M Shah Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 13
________________ ॥५३॥ सिद्धसेन-दिवाकर-कथानक पारंचिय-सेवी इव अच्छइ तहियं तवं करेमाणो । [पुच्छिा जंतो लोएण निय वयं नेय सो कहइ तेण वि रन्नो कहियं देवहरे तुम्ह संतिए वसइ ।। न य पडइ परं चलणेसु देव देवस्स तो रन्ना ॥५४॥ सयमागंतुं पुट्ठो कोऽसि तुमं धम्मिओ त्ति भणियम्मि । ता किं न थुणसि' देवं इमं कुडंगेसरं इहइं ॥५५॥ दंसण-पभावणा होउ [9A] एत्थ पवर त्ति जंपियंतेण । मम थुइ एसो न सहइ कह नज्जइ राइणा भणिए ॥५६॥ पच्चाएमी एयं कयाइ कल्लम्मि जंपिए राया । बीय-दिणे संपत्तो सपुरजणो तत्थ नरनाहो ॥५७॥ तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिण-थुई समंताहिं । बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं उद्दाम-सद्देण ॥५८॥ यथा - प्रकाशितं यथैकेन त्वया सम्यग् जगत्रयं । समग्रैरपि नो नाथ परतीर्थाधिपैस्तथा ॥५९ ॥ विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः । समुद्गतः२ समग्रोऽपि किं तथा तारका-गणः त्वद्वाक्यतोऽपि केषांचिदबोध मे तदद्भुतं । भानोर्मरीचयः कस्य 'नाम नाऽऽलोकहेतवः ॥६१ ॥ न वाऽद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या क्लिष्ट-चेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्व[9B] तः कराः ॥६२ ॥ १. मुणसि २. प्रकासितं ३. समुद्गत ४. त्वद्वाक्पथोऽपि येषां । ५. नामलालोक ० ६. ० त्याक्लि ० ॥६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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