Book Title: Prabandh Chatushtay Author(s): Ramniklal M Shah Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi AhmedabadPage 73
________________ ६६ बप्पभट्टि कथानक एमाइ देवरूवे वन्निज्जंते न ठाइ जा तस्स । मणयं पि मणे हरिसो ता भणिओ एस नवकारो सो जयइ जएक्क-पहू तेलोक्कक्कंत-मज्झिमुद्देसं । नाणं जस्स विरायइ फलं व बद्धेक्क - कक्कडयं नाणाइसयं सोऊण देवदेवस्स रंजिओ भणइ । एसो देवो मज्झ अज्जप्पभिई पयंसेह तो वीरनाह-पडिमा पयंसिया सार- रयण निम्मविया । रायाइ-दोस-सूयग-लंछण-रहिया जिणतणु व्व सो तं पिच्छिय [89A] नो जाव किंपि जंपेइ ताव सूरीहिं । भणिओ जंपसु थवणं इमस्स ता सेस - विउसेहिं चिंतियमेयं निय- माणसम्मि गरुओ वि बप्पहट्टीहं । पायय-जणो व्व जंपइ निय- दंसण - राय-माहप्पा वप्पइराओ जम्हा महुमहणं मोत्तु सेस- देवाणं । किं कुणइ नणु पणामं कइय वि विनाय- परमत्थो पुणरवि भणिओ सूरी भणसु थवणं ति तो ससामंतो । हियट्ठिय- निय-भावस्स सूयगं भणइ इय गाहं कंठेच्चिय परिघोलइ पुणरुत्तं पह [89B] रिसोवलक्खलिया । अपहुप्पंति व्व महं वाया पहुणो पसंसासु सूरीहिं पुणो भणिओ तह वि हु भण किंपि एत्थ थोवं पि । एयाण पच्चयत्थं सामंताईण तो भणियं मयणाहि- सामलेणं इय मुणिए किं फलं निडालेणं । इच्छामि इमं जिणवर-पणाम- किण- कलुसियं वोढुं Jain Education International For Private & Personal Use Only ॥७०७ ॥ ॥७०८ ॥ ॥७०९ ॥ ॥७१० ॥ ॥७११ ॥ ॥७१२॥ ॥७१३ ॥ ॥७१४॥ ॥७१५ ॥ ॥७१६ ॥ ॥७१७ ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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