Book Title: Prabandh Chatushtay
Author(s): Ramniklal M Shah
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

Previous | Next

Page 43
________________ ३६ मल्लवादि-कथानक भणियाणंतरमेव य राय-भडा गवेसिउं पत्ता । साहिति देव नज्जइ उस्सूरे सुत्तओ होही ॥३७४॥ नो बुज्झइ सो अज्ज वि बुद्धाणंदो त्ति जं[48.B] पिए राया । जंपइ भो भो कुसलं जं से दीहा 'इमा निद्दा ॥३७५ ॥ सम्मं निरूविऊणं आगच्छह ता पुणोवि पट्टविया । ते वि हु गंतुं उग्घाडिउं च बारं निहालंति ॥३७६॥ दिट्ठो तो तत्थ मओ बुद्धाणंदो अनाय-भंग-गमो । कर-गहिय-निबिङ-सेडिय-उल-मुहो अद्ध-कय-लिहणो ॥३७७ ॥ एत्थंतरम्मि मुक्का वुट्ठी कुसुमाण सासण-सुरीहिं ।। गयणस्थाहिं सिरि-मल्लवाइणो उवरि कहियं च ॥३७८॥ रायाईणं सव्वं बुद्धाणंदस्स चेट्ठियं तं च । नाउं परा[49.A]जिओ त्ति य बुद्धाणं दरिसणं राया ॥३७९ ॥ नीसारिउकामो वि हु निवारिओ मल्लवाइणा तत्तो । भूवइणा भरुयच्छे पुणो वि आणाविओ संघो ॥३८० ॥ सयलो वि जिणाणंदप्पमुहो सो पवेसिओ पुरे नियए । महया विच्छड्डेणं तहिं च वक्खाणिओ गंथो ॥३८१ ॥ सो नयचक्कऽभिहाणो पहूहि सिरि-मल्लवाइणा एवं ।। सिरि-वीरनाह-तित्थं पभाविउं विहरिउं पुहई ॥३८२ ॥ पत्तो सुरालयम्मी अज्ज वि नयचक्क-गंथयं तमिह । विज्जइ वाइंताण' वि उवद्दवो जोयए जेण ॥३८३॥ छ॥ श्री मल्लवादि-कथानकं समाप्तं ॥ २. इमे ३. -सुराहिं ४ ० स्थहिं ५. वाईताण । १. गवेसियं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114