Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा |
की पाँचवें गुणस्थान तक, मनुष्यायु की अयोगिकेवली गुणस्थान तक और देवायु की उपशांतमोह गुणस्थान तक सत्ता होती है।
विशेषार्थ--गाथा में आयुकर्म के भेदों के उदय एवं सत्ता का निर्देश किया है
देवों और नारकों के आदि के चार गुणस्थान होने से नरकायु और देवायु का उदय चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तथा तिर्यंचायु का उदय पाँचवें देशविरत गुणस्थान पर्यन्त होता है । क्योंकि तिर्यंचों में आदि के पाँच गुणस्थान होते हैं और मनुष्यों में सभी गुणस्थान सम्भव होने से मनुष्यायु का उदय चौदहवें अयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त होता है।
अब आयुचतुष्क की सत्ता का निरूपण करते हैं
अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान पर्यन्त नरकायु की, देशविरत पर्यन्त तिर्यंचायु की, अयोगिकेवली पर्यन्त मनुष्यायु की और उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त देवायु का सत्ता हो सकती है। ___ इस प्रकार से आयु के बंध, उदय और सत्ता का निर्देश करने के पश्चात् अब संवेध का निरूपण करते हैं। आयुकर्म के संवेध
अब्बंधे इगि संतं दो दो बद्धाउ बज्झमाणाणं ।
चउसुवि एक्कस्सुदओ पण नव नव पंच इइ भेया ॥६॥ शब्दार्थ-अब्बंधे-आयु का बंध न हुआ हो, इगि-एक ही, संतसत्ता, दो-दो-दो-दो की, बद्धाउ-बद्धायुष्क के, बज्झमाणाणं-बध्यमान के,
१ ग्यारहवें गुणस्थान तक जो देवायु की सत्ता कही है, वह विवक्षाप्रधान
दृष्टि की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि देवायु का बंध करके मनुष्य उपशम श्रेणी मांड़ सकता है और ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है । इसलिये देवायु की सत्ता की ग्यारहवें गुणस्थान तक विवक्षा की है।
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