Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७५,७६,७७
१४३.
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उत्पत्ति के प्रथम समय में होता है, पच्चीस प्रकृतिक उदय उत्तर वैक्रियशरीर की विकुर्वणा करते समय प्रारम्भ में होता है । उनतीस प्रकृतिक उदय पर्याप्त नारक के होता है। तीस प्रकृतिक उदय पर्याप्त मनुष्य और देवों के होता है, और इकत्तीस प्रकृतिक उदय उद्योत के उदय वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है । इस प्रकार से विचार करने पर यहाँ सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान घटित न होने से शेष सात उदयस्थान सासादन गुणस्थान में बताये हैं और सत्ताईस एवं अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि वे न्यून अपर्याप्तावस्था में होते हैं कि जिस समय सासादनत्व नहीं होता है । "
१ उद्योत का उदय होने के पहले तिर्यंचों को भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
२ सासादनगुणस्थान करण-अपर्याप्तावस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले होता है, उसके बाद नहीं होता है और पर्याप्तावस्था में तो हो ही सकता है | शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले होने का कारण यह है कि सासादान में आने वाला उपशम सम्यक्त्व से गिरकर आता है और उपशम सम्यक्त्व किसी को भी अपर्याप्त अवस्था में उत्पन्न होता ही नहीं है । पूर्वजन्म में अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर अनन्तानुबंधिकषाय का उदय होने से सम्यक्त्व का वमन कर सासादान भाव को प्राप्त कर मरकर यथायोग्य गर्भज मनुष्य, तिर्यंच, देव, बादर पर्याप्त पृथ्वी, अप्, प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकता है । पूर्वजन्म का लाया हुआ वह सासादन सम्यक्त्व शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले चला जाता है । जिससे सासादान गुणस्थान में उपर्युक्त जीवों के शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले जो उदयस्थान होते हैं, वे हो सकते हैं और पर्याप्तावस्था में तो चारों गति के संज्ञी पर्याप्त जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें अनन्तानुबंधि के उदय से सासादनत्व भी प्राप्त हो सकता है । जिससे
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