Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान समझना चाहिये । अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान के निषेध का कारण पूर्व कथनानुसार जानना चाहिये। सब मिलाकर तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बाँधने पर मिथ्यादृष्टि को चालीस सत्तास्थान होते हैं।
तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध होता है और आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतियाँ बंधती हैं। वे दोनों बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होते हैं । क्योंकि मिथ्यादृष्टि को तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक का बंध होता ही नहीं है।
इस प्रकार से मिथ्यात्व गुणस्थान संबन्धी बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जानना चाहिये। सुगम बोध के लिये उक्त समग्र कथन का प्रारूप पृष्ठ २६६-२७० पर देखिए ।
सासादनगुणस्थान-अब इस गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थान एवं उनके संवेध का विचार करते हैं ।
सासादनगुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं ।1 इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के दो प्रकार हैं-१. देवगतियोग्य, २. नरकगतियोग्य । किन्तु सासादनगुणस्थान में नरकगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध नहीं होकर देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है और उसके बंधक पर्याप्तावस्था में वर्तमान गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य हैं। उसका बंध करने पर स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, और यश कीर्ति-अयशःकीर्ति के परावर्तन द्वारा आठ भंग होते हैं । अर्थात् इन आठ प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से मनुष्य और तिर्यंच अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं।
१ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार की प्रकृति संख्या वाले तीन बंधस्थान
सासादनगुणस्थान में माने हैं। देखो पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. ४०३ ।
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