Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १० । उक्त सोलह प्रकृतियों में एकेन्द्रियजाति, स्थावर और आतप नाम को मिलाने पर उन्नीस प्रकृतियों को सनत्कुमारादि देव नहीं बांधते हैं । तथा
तिरितिगउज्जोवजुया आणयदेवा अणुत्तरसुरा उ। अणमिच्छणीयदुन्भगथीणतिगं अपुमथीवेयं ॥१४॥ संघयणा संठाणा पण-पण अपसत्थविहगई न तेसि । शब्दार्थ-तिरितिग-तियंचत्रिक, उज्जोवजुया-उद्योत के साथ, आणयदेवा-आनत आदि के देव, अणुतरसुरा-अनुत्तर विमानवासी देव, उऔर, अमिच्छ- अनन्तानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्व, णीय-नीच गोत्र, दुब्भगदुर्भम, थोणतिगं-स्त्यानद्धित्रिक, अपुमथीवेयं-नपुसक और स्त्रीवेद । ____ संघयणा संठाणा पण पण---पाँच संहनन और पाँच संस्थान, अपसत्थविहगइ-अप्रशस्त विहायोगति, न--नहीं, तेसि-उनको ।
गाथार्थ-तिर्यंचत्रिक और उद्योत युक्त पूर्वोक्त प्रकृतियाँ आनतादि देव नहीं बांधते हैं । अनुत्तर विमानवासी देव अनन्तानुबंधि कषायचतुष्क, मिथ्यात्व, नीचगोत्र, दुर्भगत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, नपुसकवेद, स्त्रीवेद तथा पहले के सिवाय पांच संहनन, पहले के सिवाय पांच संस्थान और अप्रशस्त विहायोगति का भी बंध नहीं करते हैं।
विशेषार्थ-पूर्व में सनत्कुमारादि देवों के बंध-अयोग्य जो उन्नीस प्रकृतियाँ कही हैं, उनमें तिर्यंचत्रिक (तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु) और उद्योतनाम को मिलाने पर कुल तेईस प्रकृतियाँ आनतादि देवों के भवप्रत्यय से बंधती ही नहीं हैं तथा गुणप्रत्यय से जो प्रकृति नहीं बंधती हैं, उनको गुणस्थान क्रम से समझ लेना चाहिये । __ अनुत्तरविमानवासी देव अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिथ्यात्व, नीचगोत्र, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, स्त्याद्धित्रिक, नपुसकवेद, स्त्रीवेद और 'तु' शब्द से ग्रहीत दुःस्वर नाम को नहीं बांधते हैं एवं
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