Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसग्रह : १०
परिशिष्ट १२ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार मूल एवं उत्तर
प्रकृतियों के बंध-उदय-सत्त्व के संवेध भंगों के प्रारूप कर्म विचारणा में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि प्रतिसमय कितनी प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्त्व संभव है। इसीलिये दोनों जैन परम्पराओं ने एतद् विषयक विचार किया है। इस प्रक्रिया में दृष्टिकोण की भिन्नता की अपेक्षा अधिकांश समानता होते हुए भी कतिपय अन्तर भी आ गये हैं। जो अपेक्षाओं के सूचक तो हैं, लेकिन विरोध के नहीं। ग्रन्थ में श्वेताम्बराचार्यों के विचारों को तो प्रस्तुत कर दिया है और अब तुलनात्मक अध्ययन के लिये दिगम्बर आचार्यों की दृष्टि को प्रारूपों द्वारा स्पष्ट करते हैं । आशा है, विज्ञजन कारण सहित मीमांसा के लिये उन आचार्यों के ग्रन्थों का अवलोकन करेंगे। मूल प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्त्वस्थानों के संभव
भंगों का प्रारूप
उदय
सत्त्व
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अबन्ध
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