Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४८
३३७ नरकपृथ्वी में इकहत्तर प्रकृतियाँ बंधयोग्य हैं, लेकिन सातवीं नरकपृथ्वी में भवप्रत्यय या गुणप्रत्यय से मनुष्यायु का बंध ही नहीं होता है जिससे उनको पहले गुणस्थान में छियानवै, दूसरे गुणस्थान में इक्यानवै और तीसरे, चौथे गुणस्थान में सत्तर प्रकृतियों का बंध होता है। ___ इस प्रकार से गुणस्थानापेक्षा नरकगति में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या जानना चाहिए। अब देवगति में बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं। देवगति में बंधयोग्य प्रकृतियां
सामण्ण सुराजोग्गा आजोइसिया ण बंधति सतित्था। इगिथावरायवजुया सणंकुमारा ण बंधति ॥१४॥
शब्दार्थ-सामण्ण सुराजोग्गा-सामान्य से देवों के अयोग्य, आजोइसिया-ज्योतिष्क तक के देव, ण-नहीं, बंधंति---बांधते, सतित्था-तीर्थकर नाम युक्त, इगिथावरायवजुया-एकेन्द्रिय स्थावर, आतप सहित, सणंकुमारासनत्कुमारादि, ण बंधंति-नहीं बांधते हैं।
गाथार्थ-सामान्य से देवों के बंध अयोग्य जो प्रकृतियाँ हैं, उनको तीर्थंकर नाम सहित ज्योतिष्क तक के देव नहीं बाँधते हैं, तथा एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप युक्त उन प्रकृतियों को सनत्कुमार आदि के देव नहीं बाँधते हैं। विशेषार्थ—सामान्य से देवों के बंध-अयोग्य जो सोलह प्रकृतियाँ पूर्व में कहीं गई हैं,1 वे इस प्रकार हैं—वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवत्रिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और विकलत्रिक । इन सोलह प्रकृतियों के साथ तीर्थंकर नामकर्म को मिलाने पर कुल सत्रह प्रकृतियाँ ज्योतिष्क तक के देव अर्थात् भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क देव भव-स्वभाव से ही नहीं बाँधते हैं।
१ बंधविधि अधिकार गाथा ३०
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