Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१
३२७ क्योंकि उन गुणस्थानों में वेदनीय और आयुकर्म की उदीरणा के योग्य अध्यवसायों का अभाव है। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में छह या पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। उसमें पहले छह की उदीरणा होती है । और वह वहाँ तक होती है कि दसवें गुणस्थान की आवलिका शेष न रहे । आवलिका शेष रहे तब मोहनीयकर्म की मात्र अन्तिम एक आवलिका ही शेष रहने से उसके बिना पाँच की उदीरणा होती है। उपशान्तमोहगुणस्थान में उन पाँच की ही उदीरणा होती है। क्षीणमोहगुणस्थान में भी उन्हीं पाँच कर्मों की तब तक उदीरणा होती है कि उनकी आवलिका शेष न हो, आवलिका शेष रहे तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीन कर्म आवलिका प्रविष्ट होने से उनकी उदीरणा नहीं होती है। मात्र नाम और गोत्रकर्म की ही उदीरणा होती है। सयोगिकेवलीगुणस्थान में भी नाम और गोत्र इन दो कर्मों को ही उदीरणा होती है तथा अयोगिकेवलीगुणस्थान में वर्तमान आत्मा के किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती है ।
पंचेन्द्रिय की प्रतिपक्षी-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति तथा त्रस काय की पतिपक्षी-स्थातर काय-पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति काय इन सभी को तिर्यंचगति के समान बंधादि जानना चाहिये । अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा पृथ्वीकायादि स्थावरकाय को सात अथवा आठ कर्मों का बंध होता है, सात अथवा आठ की उदीरणा और आठ का उदय और सत्ता होती है।
मनोयोगि को वीतराग छद्मस्थ बारहवें गुणस्थान पर्यन्त जैसे बंधादि का निर्देश किया है, तदनुसार समझना चाहिये । अर्थात् जैसे पहले मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान तक में बंधादि विषयक सत्पदप्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । क्योंकि मनोयोगि को क्षीणमोह गुणस्थान तक के गुणस्थान संभव हैं।
काययोगि और वचनयोगि को सयोगिकेवली गुणस्थान तक में जैसे पूर्व में बंधादि का कथन किया है, उसी प्रकार समझना चाहिये।
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