Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १० होने के बाद छब्बीस प्रकृतियों का बंध होता है और वह अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त होता है।
उस चरम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने से अनिवृत्तिबादर-संपराय गुणस्थान के प्रथम समय में बाईस प्रकृतियाँ बंधयोग्य होती हैं। इन बाईस प्रकृतियों का बंध वहाँ तक होता है कि अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। तत्पश्चात् पुरुषवेद का बंधविच्छेद होने पर इक्कीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं और वे भी वहाँ तक बंधती हैं कि शेष रहे संख्यातवें भाग प्रमाण काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। उसके बाद संज्वलन क्रोध का बंध विच्छेद होने से बीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं और वे भी शेष रहे काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। तत्पश्चात संज्वलन मान का बंधविच्छेद होने से उन्नीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं । वे भी शेष रहे काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे, वहाँ तक बंधती हैं। तत्पश्चात् संज्वलन माया का भी बंधविच्छेद होने से अठारह प्रकृतियाँ बंधयोग्य होती हैं और वे अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त बंधती हैं। उस चरम समय में संज्वलन लोभ का भी बंधविच्छेद होने से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के प्रथम समय में सत्रह प्रकृति बंधती हैं ।
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक, यशःकीर्ति नाम और उच्च गोत्र इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, जिससे उपशांत मोह, क्षीणमोह और सयोगि केवली इन तीन गुणस्थान में मात्र एक सातावेदनीय का ही बंध होता है, अन्य किसी भी प्रकृति का बंध होता है। ___ इस प्रकार गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या जानना चाहिये। अब नरकगति आदि में गुणस्थान के क्रम से बंधसंख्या का कथन करते हैं। नरकगति में बंध-प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
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