Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
क्योंकि काययोग और वचनयोग सयोगि केवली गुणस्थान तक संभव
है । तथा—
ई नवगुणतुल्ला तिकसाइवि लोभ दसगुणसमाणो । सेसाणिवि ठाणाई एएण कमेण नेयाणि ॥ १४२ ॥
शब्दार्थ - बेई - वेदत्रिक में, नवगुणतुल्ला – आदि के नौ गुणस्थान के तुल्य, तिकसाइवि-तीन कषायों में भी, लोभ -- लोभ कषाय में, दसगुणसमानो - दस गुणस्थान के तुल्य, सेसाणि विठाणाई -- शेष स्थान भी, एएनइसी, कमेण - क्रम से, नेयाणि- - जानना चाहिये ।
गाथार्थ - वेदत्रिक और तीन कषायों में आदि के नौ गुणस्थान के तुल्य और लोभ कषाय में दस गुणस्थान के तुल्य जानना चाहिये | इसी क्रम से शेष स्थान भी जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - वेदमार्गणा के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद तथा कषाय मार्गणा के क्रोध, मान और माया इन तीन भेदों, कुल छह भेदों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान पर्यन्त जैसे बंधादि का कथन किया है, उसी के समान समझना चाहिये | क्योंकि तीनों वेद और तीनों कषाय नौवें गुणस्थान पर्यन्त ही संभव हैं ।
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लोभ के संबन्ध में दसवें गुणस्थान तक जैसा पूर्व में कहा है, तदनुरूप समझना चाहिये । क्योंकि लोभ सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान तक ही संभव है ।
इसी तरह शेष मार्गणास्थानों में भी उक्त प्रकार से समझना चाहिये । जो इस प्रकार है
ज्ञान मार्गणा के भेद मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान मार्गणा में मिथ्यादृष्टि से मिश्रगुणस्थान तक, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मार्गणा में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान तक, मनपर्यायज्ञानमार्गणा में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीण
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