Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ स्थानों में बानवै प्रकृतिक और इकत्तीस प्रकृतियों के बंधक को दोनों उदयस्थानों में तिरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । क्योंकि जिसने तीर्थकरनाम का निकाचित बंध किया है, वह उसकी बंधयोग्य भूमिका में प्रति समय अवश्य तीर्थंकरनाम कर्म का बंध करता है। इसी प्रकार आहारक का बंध होने के बाद भी उसकी बंधयोग्य भूमिका में आहारकद्विक का बंध होता रहता है। इसलिये प्रत्येक बंध में एक-एक सत्तास्थान संभव है। कुल मिलाकर आठ सत्तास्थान होते हैं।
इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंधादि स्थान और उनका संवेध जानना चाहिये। जिसका प्रारूप इस प्रकार हैअप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादिस्थानों में संवेध का
प्रारूप
बंधस्थान
उदयस्थान
सत्तास्थान
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२४ प्र
योग ४
अपूर्वकरण गुणस्थान--- इस गुणस्थान के बंध-उदय-सत्तास्थान एवं इनके संवेध का वर्णन इस प्रकार है---
यह गुणस्थान चारित्रमोह के उपशमक या क्षपक को होता है। यहाँ अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये पांच Jain Education International For Private & Personal Use Only
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