Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५, १३६
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गाथार्थ- संज्ञी जीवस्थान में मोहनीयकर्म के सभी बंध, उदय और सत्तास्थान होते हैं । बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में आदि के दो बंधस्थान होते हैं ।
आठ जीवस्थानों में बाईस का बंध और आठ आदि तीन उदयस्थान होते हैं तथा पाँच जीवभेदों में सात सहित चार उदयस्थान होते हैं । तेरह जीवभेदों में अट्ठाईस सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं ।
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विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में मोहनीयकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जीवस्थानों में घटित किया है । जो इस प्रकार है
मोहनीयकर्म के सभी बंधस्थानों, उदयस्थानों और सत्तास्थानों का निर्देश पूर्व में किया है, वे सभी अन्यूनातिरिक्त पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में होते हैं । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी में सभी गुणस्थान होते हैं । जिससे गुणस्थानों की अपेक्षा सम्भव सभी बंधादि स्थान और उनके भंग होते हैं ।
बादर एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में बाईस और इक्कीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। इनमें से बाईस प्राकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि में और इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान सासादनगुणस्थान में होता है । इन जीवों में सासादनगुणस्थान पर्याप्त नामकर्म में उदयवालों को करण - अपर्याप्तावस्था में सम्भव है । जिससे उस गुणस्थान की अपेक्षा इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान का ग्रहण किया है ।
पर्याप्त - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त - बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय इन आठ जीवस्थानों में मोहनीयकर्म का बाईस प्रकृति रूप एक ही बंधस्थान होता है, और उसका सप्रभेद कथन पूर्व की तरह है । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के तीन वेद और युगल के परावर्तन से जो छह भेद पूर्व में कहे हैं वे यहाँ भी होते हैं ।
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