Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
इन्हीं आठ जीवस्थानों में से प्रत्येक में आठ, नौ, दस प्रकृतिक इस तरह तीन-तीन उदयस्थान होते हैं । इन जीवस्थानों में अनन्तानुबंधि कषाय के उदय बिना का सात प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है। क्योंकि इनको अनन्तानुबंधि कषाय का अवश्य उदय होता है । उक्त आठ, नौ, प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबंधि कषाय युक्त ही यहाँ ग्रहण करना चाहिये तथा उनको वेदत्रिक में से नपुसकवेद का ही उदय होता है, स्त्री-पुरुषवेद का उदय नहीं होता है। जिससे आठ प्रकृतिक उदयस्थान के चार कषाय और युगल के परावर्तन से आठ भंग होते हैं तथा भय या जुगुप्सा के मिलाने से नौ प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह तथा दस प्रकृतिक उदयस्थान के आठ इस प्रकार बत्तीसबत्तीस भंग प्रत्येक में हाते हैं।
पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन पाँच जीवस्थानों में पूर्वोक्त तीन उदयस्थानों के साथ सात प्रकृतिक उदयस्थान को और जोड़ने से चार-चार उदयस्थान होते हैं । अर्थात् उपर्युक्त पाँच जीवस्थानों में से प्रत्येक को इस प्रकार चार-चार उदयस्थान होते हैं-सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक।
इन जीवस्थानों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। इनमें से मिथ्यादष्टि में आठ, नौ और दस प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं और सासादनगुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। इन जीवस्थानों में वेदत्रिक में से एक नपुसकवेद का ही उदय होता है। जिससे चौबीस के बजाय आठ-आठ भंग ही होते हैं। जिससे मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थान में तीन-तीन उदयस्थान के कुल मिलाकर बत्तीस-बत्तीस भंग होते हैं ।
इन्हीं पूर्वोक्त आ3 और पाँच कुल तेरह जीवस्थानों में तीन-तीने सत्तास्थान होते हैं, जो इस प्रकार हैं-अट्ठाईस, सत्ताईस और
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