Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७,१३८,१३६
३१६ उक्त छह बंधस्थानों में से अट्ठाईस प्रकृतिक के सिवाय पाँच बंधस्थान पर्याप्त-अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और बादर-सूक्ष्म एकेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि वे मात्र मनुष्य और तिर्यंच इन दो गति योग्य ही बंध करते हैं। ___ लब्धि-अपर्याप्त असंज्ञी, संज्ञी में भी उपर्युक्त पाँच-पाँच बंधस्थान होते हैं। क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त सभी जीव तिर्यंच और मनुष्य गति योग्य कर्म का ही बंध करते हैं। किन्तु देव नरकगति योग्य कर्म का बंध नहीं करते हैं, जिससे लब्धि-अपर्याप्त-असंज्ञी-संज्ञी में पाँच-पाँच बंधस्थान ही होते हैं और उनको पूर्वोक्त प्रकार से सप्रभेद यहाँ भी समझ लेना चाहिए। ___ करण-अपर्याप्त संज्ञी चौथे गुणस्थान में देवगति योग्य भी बंध करते हैं और अपर्याप्तावस्था में नरकगतियोग्य बंध नहीं होता है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
इस प्रकार से जीवस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों को जानना चाहिए । अब उदयस्थानों का कथन करते हैं
उदयस्थान-सभी (लब्धि-) अपर्याप्तकों को प्रारम्भ में इक्कीस प्रकृतिक आदि दो-दो उपयस्थान होते हैं। उनमें अपर्याप्त सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय को इक्कीस और चौबीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। इनमें से सूक्ष्म अपर्याप्त को उदयप्राप्त इक्कीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं-तिर्यंचद्विक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और निर्माण नाम । इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय को होता है । यहाँ भंग एक ही होता है। क्योंकि अपर्याप्त को परावर्तमान परस्पर विरोधी प्रकृतियों का अभाव होता है।
बादर अपर्याप्त को भी यही इक्कीस प्रकृति विग्रह-गति में उदय होती हैं । मात्र सूक्ष्मनाम के स्थान पर बादरनाम कहना चाहिए। यहाँ भी एक ही भंग होता है ।
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