Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७,१३८,१३६
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स्थान होता है। यहाँ आतप और प्रत्येक के साथ यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति का परावर्तन करने से दो भंग होते हैं। साधारण को आतप का उदय नहीं होता है, जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । उद्योत के साथ प्रत्येक-साधारण को यश:कीति-अयशःकीति के साथ परावर्तन करने से चार भंग होते हैं । कुल मिलाकर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग होते हैं।
इसके बाद प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास सहित छब्बीस प्रकृतिक के उदय में आतप या उद्योत दोनों में से एक को मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है। यहाँ आतप के साथ दो और उद्योत के साथ चार भंग होते हैं। जिससे सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान के कुल मिलाकर छह भंग होते हैं।
बादर पर्याप्त के पाँच उदयस्थानों के कुल मिलाकर उनतीस भंग होते हैं।
पर्याप्त संज्ञी को चौबीस प्रकृतिक के सिवाय शेष सभी उदयस्थान होते हैं । क्योंकि चौबीस प्रकृतियों का उदय एकेन्द्रिय में ही होता है अन्य किसी को नहीं होता है, जिससे उसका निषेध किया है। उदयस्थान और उनके भंग देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य की अपेक्षा जो पूर्व में कहे जा चुके हैं तदनुरूप पर्याप्त संज्ञी के लिए जानना चाहिए।
शेष पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय को इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को पहले जिस प्रकार उदयस्थान और उनके भंग कहे हैं तदनुरूप यहाँ जानना चाहिए।
जिस प्रकार प्राकृत-सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय को पूर्व में भंग कहे हैं, उसी प्रकार पर्याप्त असंज्ञी को भी कहना चाहिये । मात्र द्वीन्द्रियादि सभी को इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अपर्याप्त की अपेक्षा एक-एक भंग पूर्व में कहा है, वह यहाँ नहीं होता है । क्योंकि यहाँ पर्याप्त की अपेक्षा ही विचार किया है।
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