Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३१८
पंचसंग्रह : १०
,
संज्ञा के अचउवोसा - चौबीस सिवाय के इगिछडबीसाइ - इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक आदि, सेसाणं -- शेष जीवों को ।
---
तेरससु - तेरह जीवभेदों में, पंच-पांच, संता - सत्तास्थान, तिण्णधुवा - तीन अध्र ुव, अट्ठसीइ-अठासी, बाणउई - बानवे प्रकृतिक, सष्णिस्स -संज्ञी के, होंति --होते हैं, बारस - बारह, गुणठाणकमेण ——– गुणस्थान के क्रम अनुसार, नामस्स- नामकर्म के ।
गाथार्थ - संज्ञी में आठ बंधस्थान होते हैं, असंज्ञी में आदि के छह और अट्ठाईस के सिवाय शेष पर्याप्त अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और बादर - सूक्ष्म एकेन्द्रिय में होते हैं ।
इक्कीस प्रकृतिक आदि दो, चार और पाँच उदयस्थान अनुक्रम से सभी अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त और बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय में होते हैं। संज्ञी में चौबीस के सिवाय शेष सभी होते हैं और शेष भेदों में इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान होते हैं ।
तेरह जीवभेदों में तीन अध्रुव, अठासी और बानव प्रकृतिक इस तरह पाँच सत्तास्थान होते हैं तथा संज्ञी में गुणस्थान के क्रमानुसार बारह सत्तास्थान होते हैं ।
विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में पहली गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों का, दूसरी में उदयस्थानों का और तीसरी में सत्तास्थानों का निर्देश किया है । यथाक्रम से जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
बंधस्थान - पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में नामकर्म के आठों बंधस्थान होते हैं और वे जिस प्रकार से पूर्व में बताये गये हैं, तदनुरूप यहाँ भी समझ लेना चाहिए।
पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आदि के छह बंधस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक | पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय देव और नरक गति योग्य बंध करते हैं, जिससे उनको अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान भी होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org