Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
इतर-संज्ञी अपर्याप्त मनुष्याश्रयी पाँच और तिर्यंचाश्रयी पाँच, कुल मिलाकर दस भंग होते हैं। क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त संज्ञी मनुष्यायु
और तिर्यंचायु का ही बंध करते हैं । जिससे बंध-पूर्व का एक, बंधकाल के दो आयु का बंध होने से दो और उपरत बंधकाल के बाद के दो, कुल पाँच भंग मनुष्य के और पांच तिर्यंच के कुल मिलाकर दस भंग होते हैं । देव और नारक लब्धि-अपर्याप्त नहीं होते हैं एवं वे अपर्याप्त अवस्था में आयु का बंध भी नहीं करते हैं । जिससे उनको अपर्याप्तावस्था में बंधकाल से पूर्व का एक-एक भंग कुल दो भंग और लें तो संज्ञी अपर्याप्त में बारह भंग होते हैं। इन दो भंगों का ग्रहण गाथा गत 'उ-तु' शब्द से किया गया है।
इस प्रकार से जीवस्थानों में आयुकर्म के बंधादि स्थानों को जानना चाहिये अब मोहनीयकर्म के बंधादि स्थानों को बतलाते हैं । जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधादि स्थान
बंधोदयसंताई पुण्णाइं सणिणो उ मोहस्स। बायरविगलासण्णिसु पज्जेसु दु आइमा बंधा ॥१३॥ अट्ठसु बावीसोच्चिय बंधो अट्ठाइ उदय तिण्णेव । सत्तगजुया उ पंचसु अडसत्तछवीस संतमि ॥१३६॥ शब्दार्थ-बंधोदयसंताई-बंध, उदय और सत्तास्थान, पुण्णाई-पूर्णसभी, सणिणो-संज्ञी को, उ-और, मोहस्स-मोहनीयकर्म के, बायरविग. लासण्णिसु-बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय में, पज्जेसुपर्याप्त में, दु-दो, आइमा-आदि के, बंधा-बंधस्थान ।
अट्ठसु-आठ जीवस्थानों में, बावीसोच्चिय-बाईस का ही, बंधोबंधस्थान, अट्ठाइ-आठ आदि, उदय-उदयस्थान, तिण्णेव-तीन ही, सत्तगजुया-सात सहित, उ-और, पंचसु-पाँच जीवभेदों में, अडसत्तछवीसअट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक, संतंमि-सत्तास्थान ।
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