Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
बंधस्थान होते हैं । इनमें से आदि के चार का स्वरूप अप्रमत्तसंयत के बंधस्थानों के समान समझना चाहिये और अपूर्वकरण के छठे भाग में देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद यश:कीर्ति का बंध रूप एक प्रकृतिक बंधस्थान होता है ।
यहाँ तीस प्रकृतियों का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है । उसके चौबीस भंग होते हैं, जो वज्रऋषभनाराचसंहनन, छह संस्थान, सुस्वर- दुःस्वर और शुभ विहायोगति-अशुभ विहायोगति के परावर्तन द्वारा बनते हैं । लेकिन जिन आचार्यों का मत है कि आदि के तीन संहनन में से किसी भी संहनन वाला उपशम श्रेणि मांडता है, उनके मत से इन चौबीस को तीन संहनन से गुणा करने पर बहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार एक ही उदयस्थान और उसके भंग नौवें गुणस्थान में भी होते हैं ।
सत्तास्थान पूर्व में कहे अनुसार तिरानवे, नवासी बानवें और अठासी प्रकृतिक ये चार होते हैं ।
अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं
तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव को अठासी प्रकृतिक, उनतोस प्रकृतियों के बंधक को नवासी प्रकृतिक, तीस प्रकृतियों के बंधक को बानव प्रकृतिक और इकत्तीस प्रकृतियों के बंधक को तिरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं ।
एक प्रकृतिक बंधक को चारों सत्तास्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि चारों में से किसी भी बंधस्थान वाला देवगतियोग्य बंधविच्छेद होने के बाद एक प्रकृति का बंधक होता है और अट्ठाईस आदि प्रकृतियों के बंधक को अनुक्रम से अठासी प्रकृतिक आदि चारों सत्तास्थान कहे हैं, जिससे एक प्रकृति के बंधक को भी चारों सत्तास्थान संभव हैं |
इस प्रकार से अपूर्वकरण गुणस्थान के बंधादि स्थानों और उनका
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