Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
२७१
,
सासादनगुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारक तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य अथवा मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । तीर्थंकरनाम युक्त देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का यहाँ बंध नहीं होता है। क्योंकि यहाँ तद्योग्य अध्यवसाय के अभाव में तीर्थंकरनाम का बंध संभव नहीं है ।
यहाँ भंग चौंसठ सौ (६४००) होते हैं । जो इस प्रकार हैं- यद्यपि सासादनगुणस्थान वाले जीव तियंच पंचेन्द्रिय या मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधस्थान का बंध करते हैं, किन्तु उक्त बंधस्थान हुडक संस्थान या सेवार्त संहनन युक्त नहीं बांधते हैं। क्योंकि हुडक संस्थान और सेवार्त संहनन का बंध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है । इसलिये तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर पाँच संहनन, पाँच संस्थान, विहायोगतिद्विक, स्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग- दुभंग, सुस्वर - दुःस्वर, आदेय अनादेय और यशः कीर्ति अयश:कीर्ति के साथ परस्पर परावर्तन करने से बत्तीस सौ ( ३२०० ) भंग होते हैं । अर्थात् सभी प्रकृतियाँ परावर्तमान होने से उनका परस्पर परावर्तन करने पर उनतीस प्रकृतियों का बंध बत्तीस सौ प्रकार से होता है ।
इसी प्रकार मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध भी बत्तीस सौ प्रकार से होता है । इन दोनों को जोड़ने पर कुल मिलाकर चौंसठ सौ भंग होते हैं । तथा
सासादनगुणस्थान में वर्तमान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी-संज्ञी तिर्यंच पंचेन्दिय, मनुष्य, देव और नारक उद्योतनाम युक्त तिर्यंचगति योग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । परन्तु तथाप्रकार के अध्यवसाय के अभाव में तीर्थंकरनाम युक्त मनुष्यगतियोग्य तीस या आहाRafae युक्त देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं ।
यहाँ भी जैसे पूर्व में उनतीस प्रकृतियों का बंध होने पर बत्तीस सौ भंग बताये हैं, उसी प्रकार तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर भी बत्तीस सौ भंग होते हैं। तीनों बंधस्थानों के कुल
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International