Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
तीर्थकरनाम सहित देवगति योग्य बंध करने पर मनुष्यों को उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और इसके भी पूर्वोक्त प्रकार से आठ भंग होते हैं। मनुष्यगतियोग्य बंध करते देव और नारकों के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इसके भी यही आठ भंग होते हैं। तथा
तीर्थकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस का बंध करने पर उनको तीस प्रकृतिक बंधस्थान भी होता है और उसके भी पूर्वोक्तानुसार आठ ही भंग होते हैं। ___ इस गुणस्थान में आठ उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैंइक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक।
इनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव चारों गति संबन्धी समझना चाहिये। क्योंकि पूर्वबद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि की उक्त चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है। अविरतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त नामकर्म के उदय वालों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिये अपर्याप्त के उदयस्थान में होने वाले भंगों को छोड़कर शेष भंग यहाँ समझना चाहिये और ऐसे भंग पच्चीस हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है--तिर्यंच पंचेन्द्रिय संबन्धी आठ, मनुष्य संबन्धी आठ, देव संबन्धी आठ और नारकी संबन्धी एक । कुल मिलाकर ये पच्चीस होते हैं।
पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान देव, नारक और वकिय तिर्यच-मनुष्यों की अपेक्षा समझना चाहिये । इनमें से नारक क्षायिक या वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं और देव तीनों प्रकार के सम्यक्त्व वाले होते है । यहाँ भंग अपने-अपने सभी समझना चाहिये ।
१ 'पणवीससत्तवीसोदया देवने र इए उव्विय वेतिरिमणुए य पडुच्च, नेरै इंगो खवइवेयगा सम्म हिट्ठी, देवो तिविह सम्मद्दिट्ठीविति ।'
-सप्ततिका चूर्णि
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