Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १० रीति से होते हैं । तीस प्रकृतियों के उदय में देवगति या नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को सामान्य से बानव और अठासी प्रकृतियों की सत्ता जैसे पूर्व में कही है, उस प्रकार यहां भी समझना चाहिये।
नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान इस प्रकार होता है
कोई मिथ्यादृष्टि मनुष्य नारक की आयु बांध क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपाजित करे और इसके बाद तथाप्रकार के विशिष्ट परिणाम के योग में तीर्थंकर नाम का निकाचित बंध करे तो वह मनुष्य नरक में जाने के सन्मुख होते अपनी अन्तर्मुहूर्त आयु शेष हो तब सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाये, वहां उस समय उस जीव को तीर्थकर नाम का बंध नहीं होने से नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर नवासी प्रकृतियों सत्ता होती है।
छियासी प्रकृतियों की सत्ता इस प्रकार है
तीर्थकरनाम, आहारकचतुष्क, देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की सत्ता जब न हो तब अस्सी प्रकृतियों की सत्ता होती है। अस्सी प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई (एकेन्द्रिय) जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य में उत्पन्न हो सभी स्वयोग्य पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, पर्याप्तावस्था में यदि विशुद्ध परिणाम वाला हो तो देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधे और उनके बंध से देवद्विक एवं वैक्रियचतुष्क की सत्ता प्राप्त हो जिससे उसे छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है। अथवा यदि सर्व संक्लिष्ट परिणाम वाला हो तो नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करे और उनके बंध से नरकद्विक एवं वैक्रियचतुष्क की सत्ता प्राप्त होती है । इस प्रकार भी छियासी प्रकृतियों का सत्तास्थान प्राप्त होता है।
इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में बानवै, अठासी और छियासी इस इस प्रकार तीन सत्तास्थान होते हैं। इसका उदय होने पर भी नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि इकत्तीस प्रकृतियों का उदय उद्योतनाम के उदय वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय में होता है । तिर्यचों में
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