Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
के उदय में सात, छब्बीस प्रकृतियों के उदय में पांच, सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में छह, अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में छह, उनतीस के उदय में छह, तीस प्रकृतियों के उदय में छह और इकतीस के उदय में चार सत्तास्थान होते हैं और सब मिलाकर बावन सत्तास्थान होते हैं ।
इकत्तीस प्रकृतियों का बंध करने पर तीस प्रकृति रूप एक ही उदयस्थान होता है । क्योंकि तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक के साथ देवगतियोग्य बांधते अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण को इकत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । वे वैक्रिय या आहारक शरीर की विकुर्वणा नहीं करते हैं । इसलिये पच्चीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान सम्भव नहीं हैं । यहाँ सत्तास्थान मात्र तेरानवे प्रकृतिक ही होता है । क्योंकि तीर्थकरनाम और आहारकचतुष्क इन दोनों की सत्ता यहाँ पर है |
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आठवें गुणस्थान के छठे भाग के बाद देवगतियोग्य कर्म के बंध का विच्छेद होने से मात्र एक यशः कीर्तिनाम का जब बंध होता है तब उदयस्थान मात्र तीस प्रकृतिक ही होता है। क्योंकि अपूर्वकरणादि गुणस्थान वाले एक यशःकीर्ति का बंध करते और वे अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से वैक्रिय या आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करते हैं । इसलिये पच्चीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान यहाँ नहीं होते हैं ।
हैं
सत्तास्थान आठ होते हैं । जो इस प्रकृतिसंख्या वाले हैं - तेरानवं, बानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक । इनमें से आदि के चार उपशमश्रेणि में होते हैं और क्षपकश्रेणि में अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में जब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ, वहाँ तक होते हैं और नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद अनेक जीवों की अपेक्षा अस्सी आदि प्रकृतिक अन्त के चार सत्तास्थान होते हैं और वे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होते हैं। क्योंकि यशः कीर्तिनाम का वहाँ तक ही बंध होता है ।
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