Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,११०
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सत्ता । यह क्रम संख्या दो से पाँच तक के चार भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यथायोग्य रीति से अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं ।
यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि देवगति में नीचगोत्र का तथा नरक, तिर्यंचगति में उच्चगोत्र का उदय नहीं होता है और मनुष्यगति में यथायोग्य रीति से दोनों का उदय होता है, किन्तु दोनों गोत्र का बंध तो चारों गति के जीवों के हो सकता है ।
उपर्युक्त पाँच भंगों में से पहले भंग को छोड़कर शेष चार भंग सासादन गुणस्थान में होते हैं । पहला भंग तेज और वायुकाय के जीवों में तथा उनके भव से निकलकर जिस तिर्यंचभव में उत्पन्न होकर जब तक न बाँधे तब तक कितनेक काल होता है। तेज और वायुकाय के जीवों के सासादनभाव नहीं होता है तथा तेज और वायुकाय में से निकलकर जहाँ उत्पन्न हुए हैं उसमें भी सासादनभाव नहीं होता है । इसीलिये सासादनगुणस्थान में पहले भंग का निषेध किया है ।
तीसरे मिश्रगुणस्थान से लेकर देशविरत गुणस्थान पर्यन्त उच्चगोत्र के बंध द्वारा होने वाले दो भंग होते हैं - १. उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च - नीचगोत्र की सत्ता, २. उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च - नीचगोत्र की सत्ता ।
प्रमत्तसंयतगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त उच्चगोत्र का बंध और उच्चगोत्र का उदय होने पर एक भंग इस प्रकार होता है— उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता ।
उच्चगोत्र का बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोह गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समयपर्यन्त छठवाँ - उच्चगोत्र का उदय, उच्चनीचगोत्र की सत्ता यह एक ही भंग होता है तथा द्विचरम समय में नीचगोत्र की सत्ता का नाश होता है, जिससे अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में 'उच्चगोत्र का उदय, उच्चगोत्र की सत्ता' रूप एक ही अन्तिम - सातवाँ भंग होता है ।
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