Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२१,१२२, १२३, १२४
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प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक और आहारकमिश्र काययोग होने पर स्त्रीवेद नहीं होता है। अतः दो तृतीयांश भाग कम करना चाहिये और अप्रमत्तसंयत में तीसरा भाग कम करने योग्य है ।
विशेषार्थ - औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण इन प्रत्येक योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि के उदय बिना की चार चौबीसी नहीं होती हैं। इसलिये तीन गुणित चार यानि बारह चौबीसी और उनके दो सौ अठासी उदयभंग मिथ्यादृष्टि के कुल भंगों में से कम करना चाहिये और पद तेईस सौ चार कम करना चाहिये |
सासादन गुणस्थान में वैक्रियमिश्र योग में नपुसंकवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये सासादन सम्बन्धी चार चौबीसियों में से उसका बत्तीस भंग रूप तीसरा भाग और पद संख्या दो सौ छप्पन कम करना चाहिये ।
कार्मण और वैक्रियमिश्र काययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये अविरतसम्यग्दृष्टि की आठ चौबीसी के एक सौ बानव भंग में से तीसरा भाग कम करना चाहिये । यानि कार्मणयोग में स्त्रीवेद के उदय के आठ चौबीसी के चौंसठ भंग और वैक्रियमिश्र योग में स्त्रीवेद के उदय के आठ चौबीसी के चौंसठ भंग, कुल एक सौ अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये ।
दारिकमिश्र योग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि के नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये चौबीसी का दो तृतीयांश भाग कम करना चाहिये । यानि एक सो अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये । सब मिलाकर दो सौ छप्पन उदयभंग और नौ सौ साठ पद संख्या कम करना चाहिये ।
आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान प्रमत्तसंयत के स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये प्रमत्तसंयत
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