Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,११०
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इन गुणस्थानों में वर्तमान आत्मायें अत्यन्त विशुद्धि वाली होने से किसी भी आयु का बंध नहीं करती हैं और यदि किसी भी आयु का बंध कर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ हों तो देवायु का बंध करके ही आरूढ़ होती हैं। अन्य किसी भी आयु का बंध करने के बाद आरूढ़ नहीं होती हैं। आयु का बंध किये बिना भी आरूढ़ हो सकती हैं।
इन चार गुणस्थानों में उपशम श्रेणि की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं तथा जिन्होंने परभवायु का बंध किया है, वे क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ नहीं हो सकते हैं। इसलिये क्षपकश्रेणि के अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता यह एक ही भंग होता है।
क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में एक-एक भंग होता है जो इस प्रकार है-मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक आयुकर्म के भंग समझना चाहिये । अब गुणस्थानों में गोत्रकर्म के संवेध भंगों का निरूपण करते हैं। गुणस्थानों में गोत्रकर्म के संवेध भंग
पंचादिमा उ मिच्छे आदिमहीणा उ सासणे चउरो। उच्चबन्धेणं दोणि उ मीसाओ देसविरयं जा ॥१०॥ उच्चेणं बन्धुदए जा सुहुमोऽबंधि छट्टओ भंगो। उवसंता जाऽजोगीदुचरिम चरिमंमि सत्तमओ ॥११०॥
शब्दार्थ-पंचादिमा-आदि के पांच भंग, उ-और, मिच्छे---मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, आदिमहीणा-आदि (पहले) भंग के बिना, उ-और, सासणे-सासादन गुणस्थान में, चउरो-चार भग, उच्चबन्धेणं-उच्चगोत्र के बंध वाले, दोणि-दो, उ-और, मीसाओ-मिश्र गुणस्थान से, देसविरयं जा-देशविरत गुणस्थान तक ।
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