Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
गाथार्थ -- सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पहले और अंतिम कर्म की बंध, उदय और सत्ता में पाँच-पाँच प्रकृतियां होती हैं । उपशांतमोह और क्षीणमोह में सत्ता और उदय में पांच-पांच प्रकृति होती हैं। आगे गुणस्थानों में नहीं होती हैं ।
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विशेषार्थ - गाथा में ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की प्रकृतियों का गुणस्थानापेक्षा बंध, उदय और सत्ता का संवेध बतलाया है । जो इस प्रकार हैं
पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पहले ज्ञानावरण और अंतिम अंतराय कर्म की बंध, उदय एवं सत्ता में सभी पांच-पांच प्रकृति होती हैं । अर्थात् मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक दस गुणस्थानों में ज्ञानावरण एवं अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृतियों का बंध, पांचों प्रकृतियों का उदय और पांचों प्रकृतियों की सत्ता होती है। एक भी कम नहीं होती है । क्योंकि ये प्रकृतियां ध्रुवबंधि, ध्रुवोदया और ध्रुवसत्ता वाली हैं ।
बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोह और क्षीणमोह इन ग्याहरवें और बारहवें गुणस्थान में पांचों का उदय और पांचों की सत्ता होती है और क्षीणमोह गुणस्थान के आगे सयोगिकेवली, अयोगिकेवली गुणस्थानों में इन दोनों कर्मों की एक भी प्रकृति उदय या सत्ता में नहीं होती है । क्योंकि क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में इन प्रकृतियों का उदय और सत्ता विच्छेद हो जाता है ।
इस प्रकार से ज्ञानावरण और अंतराय कर्म प्रकृतियों का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जाना चाहिये । अब दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध द्वारा विचार करते हैं ।
दर्शनावरणकर्म के त्रिक का संवैध
मिच्छासासायणेसु नवबंधुवलक्खिया उ दो भंगा ।
मीसाओ य नियट्टी जा छब्बंधेण दो दो उ ।। १०२ ।।
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