Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : १०
सूक्ष्मसंपराय क्षपक को द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क होता है। तीर्थकरनाम की सत्ता बिना के प्रथम चतुष्क में के सत्तास्थान सासादन और मिश्रगुणस्थान में होते हैं और अयोगिकेवली गुणस्थान में आठ व नौ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं ।
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विशेषार्थ - मिथ्यात्वगुणस्थान में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थानों का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है । अतः अब दूसरे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक पाये जाने वाले सत्तास्थानों को बतलाते हैं
'पढमचउक्कं सम्मा' अर्थात् चौथे अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त प्रथम सत्ताचतुष्क (६३, ६२, ८६,
प्रकृतिक सत्तास्थान) होते हैं तथा सासादन और मिश्र इन दो गुणस्थानों में प्रथम सत्ताचतुष्क में के तीर्थंकरनाम की सत्ता बिना के सत्तास्थान होते हैं । अर्थात् तेरानव और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं ।
क्षीणमोहगुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त तथा क्षपक को अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुंणस्थान में द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यानि ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं और अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में आठ और नौ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं ।
उक्त संक्षिप्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में ६२,८६,८८,८६ ८० और ७८ प्रकृतिक ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनके होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है तथा सासादन और सम्यक्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) इन दो गुणस्थानों में ह२ और ८८ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । क्योंकि तीर्थंकरनाम की सत्तावाला इन दो गुणस्थानों को प्राप्त ही नहीं करता है । जिससे तीर्थंकरनाम की सत्तासहित तिरानवे और नवासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते नहीं हैं ।
अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत और
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